Sunday, May 5, 2013

सरबजीत का सम्मान



         सरबजीत का सम्मान



 एक जनाज़ा धुमधाम से सज रहा था,
मुर्दा "सरबजीत",
               चंदन के लेप से नहा रहा था.                       
शाही बारात जैसे  जच रही थी अर्थी,
क्या नेता-क्या जनता कर रहे थे गर्दी.
एक ओर,
        मुर्दे की बेवा मुंह ताक रही थी.
अंतिम दर्शन के लिए,
           भीड़ में बगले झांक रही थी.
दुसरी ओर,
  "अमर शहीद"का लग रहा था नारा,
बेचैनी से बेटी देख रही थी नज़ारा.
जैसे ही,
   किसी नेता ने लगाया 'ज़िंदाबाद' का नारा,
       एकाएक मुर्दे का चढ गया  पारा.
एक हाथ से दिया उसने अर्थी को झटका,
तो दुसरे हाथ से उसने नेता को पटका.
पटकनी खाते ही नेता मिमियाने लगा,
और मुर्दा, भीड़ पर चिल्लाने लगा.
बोला,
   "शर्म करो शर्म करो मौत पर भीड़ जुटानेवालों,
     डूब मरो डूब मरो घडियाली आंसू बहानेवालों.”

आगे बोला,
    " अरे ! मेरी लाश पर न्यौछावर होनेवालों,
                             तुम पर शतश: धिक्कार है.
तहज़ीब की खोट है या तालीम की,
                              जो तुम्हें मुर्दों से प्यार है?”
जीते जी तो कुत्ता ना पूछा,
        आज एकाएक मैं कैसे पावन हो गया?
अब नेता भी छू रहा है जूता,
                         ये कैसा जीवन हो गया?



लेकिन सुनो मेरे दिल की बात,
'मुझे, चंदन-फूल या इत्र से नहाने का शौक नहीं,
और गरीब देश को,
                          मुर्दे पर साधन लुटाने हक़ नहीं.
अरे! करना ही है कुछ तो
                       करो ज़िंदा लोगों से  प्यार,
और 'सम्मान' के लिए ना करो,
                              किसी के मरने का इंतजार.


                   "पुष्पेय"ओमप्रकाश गोंदुड़े (03.05.2013)

(सरबजीत के अंतिम दर्शन के उपलक्ष में )


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