मरुस्थल में तूने
की सिंचाई,
कपोलों से जो
तूने वृक्ष बनाई.
हाँ ! मैंने
देखी है यशोदामाई.
गोदी का तूने
बिछोना बनाई,
आंचल से तेरे
बनी रजाई.
हाँ ! मैंने
देखी है यशोदामाई.
ट्रेन से गिरकर भी,
मेरी जान बचाई.
'वैनगंगा' की धार से,
मुझे बचाकर लाई.
हाँ ! मैंने देखी है यशोदामाई.
मेरी हर सांस,
तेरी ही रहनुमाई.
क्यों चुपचाप सही,
तू मेरी बेवफाई.
हाँ ! मैंने देखी है यशोदामाई.
ये हमारा मुक़द्दर,
या खुदा की खुदाई.
हाँ ! तुझे देखकर ही,
उसने ममता बनाई.
हाँ
! मैंने
देखी है यशोदामाई.
'पुष्पेय' ओमप्रकाश गोंदुड़े
इस प्यार को,इन पलों को भूल गए तो जीकर भी जिए नहीं .... बहुत अच्छी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteक्या खूब कहा है...साभार
Deleteवाह धन्य है वो माँ जो ऐसा पुत्र है पाई, क्या कहने शिल्प,कथ्य,भाव एवं प्रवाह बेहद उन्नत एवं शानदार है, ह्रदयस्पर्शी रचना हेतु ह्रदय से बधाई स्वीकारें भाई.
ReplyDeleteआपकी यह रचना कल बृहस्पतिवार (13-06-2013) को ब्लॉग प्रसारण के "विशेष रचना कोना" पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
ReplyDeletethank you very much Arun ji.Aapka sneh aur aise hi bana rahe...Dhanyawad.
Deleteबेहद उन्नत एवं शानदार है, ह्रदयस्पर्शी रचना.....
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद्...साभार
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