सिपाही का दर्द
बोर्डर
पर एक शहीद का सिर था गडा,
आंखों
में आंसु और चेहरा पीला था पडा.
रोते
रोते किस्मत रहा था कोस,
साथ
में,
मॉ-बाप को भी दे रहा था दोष.
हमने
कहा,
“शहीद-ए-आजम, रातोंरात हो गए मशहुर,
अब मिलेगी जन्नत और जन्नत की हुर.”
गुस्से
में जवाब आया,
“मुझे जन्नत का तो पता नहीं,
बीवी
का ख्वाब भी कभी आता नहीं.
जब
भी देखा
मैंने सपना,
लहराता
देखा तिरंगा अपना.
पर
अब सपने भी बदरंग हो गए,
तिरंगे
ने तो रंग भी खो दिए.
सपने
में दिखती बेवा बीवी,
और बच्चे भुख से
चीखते हैं.
सुखे
आंखों से रोती माई,
पापा आसमान तकते हैं.
इसीलिये
तो मैं कुढ रहा हूं,
मॉ-बाप पर भी बिगड रहा हूं.
क्या
सोचकर मुझे बनाया सिपाही?
मुझसे
तो अच्छा कसाब कसाई,
लाखों
में तो खेल रहा था,
टीवी
चैनलों में भी चल रहा था.”
आखिर
में अतिंम सांस लेते हुए बोला,
“पापा से कहना मेरी
तमन्ना,
सिपाही
ना बनें कभी मेरा मुन्ना.
सिर
तो कभी भी कट जाएगा,
और पेट
बारुद से फट जाएगा.
और
पता नहीं कभी मिले मिलेगा भी सिर,
फिर
बोलो
क्या बुरी है कसाब की तक़दीर ?”
'पुष्पेय' ओमप्रकाश गोंदुड़े
14.01.2013
(शहीद हेमराज को
समर्पित )
वाह , एक सिपाही के दर्द को बहुत खूब बयां किया ,बहुत सुंदर और दिल को छू जाने वाली पंक्तिया , शुभकामनाये
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