कैंडल मार्च
कैंडल मार्च में एक कैंडल परेशान सा लग रहा था,
आंखों
में आंसू और शिर से पसीना बह रहा था.
जैसे
ही हमने थामना चाहा.....वह दूर सरक गया.
और
पुन: थामने
की कोशिश पर वह बिदक गया.
हमने
कहा,
"क्यों भैय्या, क्यों गुस्सा हो ?
इतने
लोग तो तुम्हें थामे हैं,
फिर हमसे ही क्यों रुस्सा हो ?
वह बोला,
“ छू ना मत मुझे,
और दूर हटो,
क्यों मैं ही बनूं बकरा बलि का ?
बलात्कार
हुआ
तो मुझे जलाया,
भ्रष्टाचार हुआ
तो मुझे जलाया.
क्यों मैं ही बनूं मुखडा आक्रोश का ?
और
बोला,
'अरे ! जितनी
मेहनत से मुझे जलाते हो,
SMS औरFB से भीड जुटाते हो.
फिर....शान से मिडिया भी बुलाते हो,
और इंकलाब के
नारे लगाते हो.
अरे
!
उससे आधी मेहनत का काम काम करो.
भ्रटाचार
हो या
बलात्कार हो,
उसीपल उस पर लगाम भरो.
जिन
हाथों से मुझे थामा हैं,
हाथों से उनको धरो.
और
यदि ये भी ना कर पाओ तो,
चुल्लू भर पानी में डूब मरो.
और
सुनो ..एक
राज की बात......
मुझे
मंदिर-मश्जिद
या चर्च में जलने का शौक नहीं,
और
गरीब की झोंपडी में जलने से खौंफ नहीं.
जहां
भी अंधेरा हो,
बेशक मुझे ही जलाओ,
अथवा
मुझे ही बेचकर ,
किसी पीड़ीत के जख्मों पर मलहम लगाओ.
"पुष्पेय"'ओमप्रकाश गोंदुड़े'
(25.12.12)