Friday, June 28, 2013

सिपाही का दर्द


 सिपाही का दर्द

बोर्डर पर एक शहीद का सिर  था गडा,
आंखों में आंसु  और चेहरा पीला था पडा.
रोते रोते किस्मत रहा था कोस,
साथ में,
   मॉ-बाप को भी दे रहा था दोष.
हमने कहा,
     “शहीद--आजम, रातोंरात हो गए मशहुर,
     अब मिलेगी जन्नत और जन्नत की हुर.”
गुस्से में जवाब आया,
  “मुझे जन्नत का तो पता नहीं,
बीवी का ख्वाब भी कभी आता नहीं.
जब भी  देखा  मैंने सपना,
लहराता देखा तिरंगा अपना.
पर अब सपने भी बदरंग हो गए,
तिरंगे ने तो रंग भी खो दिए.
सपने में दिखती बेवा बीवी,
           और बच्चे भुख से चीखते हैं.
सुखे आंखों से रोती माई,
                 पापा आसमान तकते हैं. 
इसीलिये तो मैं कुढ रहा हूं,
मॉ-बाप पर भी बिगड रहा हूं.
क्या सोचकर मुझे बनाया सिपाही?
मुझसे तो अच्छा कसाब कसाई,
लाखों में तो खेल रहा था,
टीवी चैनलों में भी चल रहा था.”

आखिर में अतिंम सांस लेते हुए बोला,
पापा से कहना मेरी तमन्ना,
सिपाही ना बनें कभी मेरा मुन्ना.
सिर तो कभी भी कट जाएगा,
और पेट बारुद से फट जाएगा.
और
  पता नहीं कभी मिले मिलेगा भी सिर,
फिर बोलो
         क्या बुरी है कसाब की तक़दीर ?”
   

                         'पुष्पेय' ओमप्रकाश गोंदुड़े
                             14.01.2013
                      (शहीद हेमराज को समर्पित )


पुष्पेय: खास चेला

पुष्पेय: खास चेला:                                        खास चेला               ' पुष्पेय ' ओमप्रकाश गोंदुड़े वह एक नई सोच लेकर आया थ...

खास चेला


                                     खास चेला
             'पुष्पेय' ओमप्रकाश गोंदुड़े


वह एक नई सोच लेकर आया था पार्टी में....... एकदम धार के विपरीत।पार्टी के बुजूर्ग नेता खुद को महाबली कर्ण समझते थे......फरक बस इतना था कि कर्ण कवच-कुंडल लेकर आया था और ये लोग कुर्सी।उसने परिवर्तन को आवाज दी थी।उसने परिवारवाद और भाई-भतीजावाद के सिध्दांत को भी ललकारा था....पूरे जोर से।शीर्ष नेताओं ने उसका मुखर विरोध किया था मगर युवा कार्यकर्ता उसकी शक्ति थे और वह उनकी आवाज।
                         लोग उसे अब नेताजी कहने लगे थे।उसका कद पार्टी में बढने लगा था और और उसके चेले भी।उसने अपना एक खास चेला भी बनाया था जिसे उसने दहाड़ना भी सिखा दिया था।खास चेला अपने नेताजी के लिए सिढ़ीया गढ़ रहा था और रास्ता भी साफ कर रहा था....धडल्ले से.... बेपरवाह होकर...बिना रोक-टोक के।उसे अपने नेताजी का वरदहस्त प्राप्त था।

                               साल दर साल लोकसभा में पार्टी की हैसियत बढ़ रही थी .......मगर अबतक उसे सत्ता का स्वाद नसीब नहीं हुआ था।समय के साथ सबकी उम्र बढ़ रही थी.....नेताजी की भी।कुछ चेले अब नेताओं की श्रेणी में आ चुके थे और खास चेला बड़े नेता की।उसका खास चेला उसके ही नक्शे कदम पर चल कर चमक रहा था..... सूर्य की तरह, और आग भी उगल रहा था सूर्य की ही तरह।

                              इधर लोकसभा का चुनावी बिगूल बज चुका था।सत्तापक्ष भ्रष्टाचार की गर्त तक पहुँच गया था।महंगाई आम जनता की कमर तोड़ चुकी थी।अब तो चुनावी सरगर्मी शुरू हो गई थी।उसे पुन: सत्ता की कुर्सी के सपने आने लगे। एकाएक परिवर्तन की बयार बहने लगी थी।आज चेले उसके दरवाजे पर पहुँचे थे.....बैंडबाजा लेकर......मिठाई लेकर....और फूलों का हार लेकर।वह अंदर ही अंदर गुदगुदा रहा था.....नाच रहा था।सत्ता की कुर्सी उसकी ओर सरकने लगी थी।वह भी कदम बढ़ा रहा था.....अब कुर्सी एकदम उसके करीब थी।उसे तो बस अब बैठना ही था।उसकी आखों में उसके संघर्ष के दिनों से लेकर अबतक के दृश्य एक चलचित्र की तरह घुम रहे थे.....उसकी आंखों से आंसू भी बहने लगे थे...खुशी के।उसके कानों में उसके ही जयनाम के नारे गूँज रहे थे और वह उसका आनंद ले रहा था....कि एकाएक उसका खास चेला आया....उसने नेताजी को मिठाई खिलाई।नेताजी ने उसे अपने गले लगाया और अपने हाथों से उसे मिठाई भी खिलाई।जैसे ही नेताजी ने खास चेले को मिठाई खिलाई....उसने भाव विभोर होकर नेताजी के पैर छूए और धम से उसी कुर्सी पर बैठ गया।नेताजी कुछ समझ पाते उसके पहले ही "नए नेता की जय-नए नेता की जय" के नारे आसमान में गूँजने लगे और नेताजी एकाएक एक बुजूर्ग नेता की तरह आसमान ताकने लगे।

             --------------*-------------------*---------------*---------------