क़फन बाप का
श्मशान में एक मुर्दा था पडा,
जिसने,
Bombay Dying
का
क़फन था ओढा.
जलाने
के लिए लाए,
मैसूर से चंदन की
लकडी,
कुछ
थी सीधी और कुछ कुछ थी अकडी.
अर्थी
के पास रखे थे छ्प्पन भोग,
आज
'हलवा-पुरी' का भी था योग.
मुर्दे
ने पहना था दिग्जाम का कुर्ता,
और रेमण्ड की धोती.
सोलह
इत्र कर रहे थे बंद,
टाटा-बिडला की बोलती.
बडका
लगा रहा था माथे पर,
लेप चंदन का.
आज
उमड रहा था प्रेम,
जन्मों के बंधन का.
काशी
से छुटका लाया,
गंगा का नीर.
देख
नज़ारा,
गदगद हो गया मुर्दा
शरीर.
जैसे
ही पहनाने चले बाटा के शुज,
तो
मुर्दा हो गया 'फुल-टु-कनफ्युज'.
जैसे
ही करने चले दाह संस्कार,
एकाएक
मुर्दे में हुआ प्राण संचार.
मुर्दा
बोला,
“बेटा,ये मेरे संस्कार है ?
या है 'अंत्य संस्कार' ?
या
फिर किसी दबी खुशी का इजहार ?".
और
बोला,
"बेटा,मुझे इतनी खुशी की आदत नहीं,
और
छप्पनभोग देखने की ताकत नहीं.
और
बेटा एक बात मुझे समझ ना आई,
कब
समाप्त हुई हलवा-पुरी की लडाई ?
और
वो तुम्हारी मजबुत और टिकाऊ रोटी,
किथ्थे गई?
जो मैंने दो-दो
दिन चबाई.
आगे बोला,
'बेटा,कब मिटा धोती का कुर्ते से झगडा?
क्या
Bombay Dying करेगा सीधा,
शरीर मेरा जो थंड से
अकडा ?'
और
बेटा !एकाएक तेरी कैसे बदल
गई सोच,
कि पापा को नहीं आती जूते में मोच?
बेटा! अब एक बार तो मुंह खोल दे,
मरे
बाप के सामने तो सच बोल दे.
आंख
का कांटा अब कैसे प्यारा हो गया?
और
सूखा पेड कब से हरा हो गया?
बेटा, कहीं अब ये ऐसा तो
नहीं,
कहीं,
ये मेरे ही मौत का जलसा तो नहीं,
सच
बता,
कहीं
ये मेरे ही इंशुरंस का पैसा तो नहीं.
'पुष्पेय' ओमप्रकाश गोंदुडे
06.02.2013
( image from google)
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