लोकतंत्र की अर्जी
सरकारी
कार्यालय के पास एक शख्स पडा था ,
आन्ख
थी फुटी और कानों पर ताला जडा था.
खून
से सना था मुंह,
और कटी हुई थी जिव्हा .
सीले
हुए नाक से ,
ना ले पा रहा था सांस,ना
हवा.
हाथ
में थी पर्ची,
जिसमें कुछ लिखा था.
पर्ची
साहाब तक पहुंचे,
तब तक वह उपर जा चुका था.
अचानक
हुआ धमाका,
और उसके शरीर से निकली आत्मा.
डर
गया मैं और कान्प गया,
याद आ गया परमात्मा.
डरते
डरते हमने कहा (आत्मा से),
' ये तेरा कैसा साज हैं?
आंख
नाक मुंह और,
चिठ्ठी का क्या राज हैं.'
जवाब
आया,"ना
तंत्र हूं,ना
मंत्र हूं,
मैं तो लोकतंत्र हूं.”
'निर्बल हूं, अपाहिज़ हूं,
फिर भी ना स्वतंत्र हूं.'
और
कहते हैं, "जैसे देखा और सुना,
मैंने भ्रष्टाचार का मामला ,
फोड
दी आंख मेरी,
और जडा कानों पर ताला.
और
जैसे ही मैंने बोलना चाहा,
सील दिया नाक और काट
दी जिव्हा.
ताकि
बढता रहे भ्रष्टाचार,
और ना बहे विरोधी हवा.”
और
आगे बोले,
"इसीलिये मैं लाया हूं पर्ची,
जिसमें हैं मेरी छोटी सी अर्जी.
आंख
मुंह तो फोड दिया,
अब हाथ-पाव भी तोड दो,
फिर
भी जी ना भरे,
तो मेरी छाती भी चीर दो.
पर
सरकार,
मैं तो लोकतंत्र हूं,
कम
से कम,
एक बार तो सांस लेने दो.”
पुष्पेय
'ओमप्रकाश गोंदुड़े'
बढ़िया |
ReplyDeleteवाह , बहुत सुंदर सार्थक और हमारी राजनीति के यथार्थ को बताती कविता ,यहाँ भी पधारे,
ReplyDeletehttp://shoryamalik.blogspot.in/2013/06/blog-post_6372.html